और आश्चर्य की बात यह है कि वे निर्वाचित प्रतिनिधि भी अनुशासन के नाम पर बंदियों की सी स्थिति स्वीकार भी कर लेते हैं। संविधान की रक्षा के लिए संघर्ष करने की बात करते हैं लेकिन स्वाभिमान की लड़ाई स्वेच्छा से हार जाते हैं। वर्चस्व के इस युद्ध में कोर्ट का फैसला किसी के भी पक्ष में जाए, फ्लोर टेस्ट का कोई भी नतीजा आए "लोकतंत्र की जीत" या "लोकतंत्र की हत्या" जैसे शब्दों का चयन हर दल अपनी सुविधानुसार कर लेगा लेकिन मतदाता को तो सबकुछ देखकर और समझकर भी सब चुपचाप सहन करना ही पड़ेगा क्योंकि आज राजनीति ने अपनी नई परिभाषाएं गढ़ ली है।
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